पाकिस्तान : वर्तमान हालात खराब. लेकिन भविष्य भयावह

पाकिस्तान में वर्तमान हालात बहुत खराब है. लेकिन भविष्य तो और भी भयावह है. अगले पांच सालतक पाकिस्तान एक स्थिर प्रजातांत्रिक देश बना रहेगा, इसकी गारंटी किसी भी सूरत मेंनहीं ली जा सकती. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर हरतरफ पाकिस्तान भ्रंस पर खड़ा है. कब कहां से टूटकर बिखर जाएगा इसकी भी गारंटी कोई नहीं ले सकता.

पाकिस्तान फेल होता जा रहा है. हर मोर्चे पर. लेकिन दुनिया में जैसेदूसरे देश ढह रहे हैं उन्हीं के तर्ज पर पाकिस्तान को ढहते हुए देखना सचमुच दुखद होगा. ऐसी स्थिति में पाकिस्तान को बिखरने के लिए छोड़ देना कहीं से अमेरिका के हित में नहीं होगा.

पाकिस्तान में अमेरिका की पहली रूचि अफगानिस्तान से जुड़ी है. 2014 तक अमेरिका को अफगानिस्तान को अलविदा कहना है. तब तक अफगानिस्तान में गैर तालिबानी शासन की सुरक्षा सुनिश्चित करना है जो कि न केवल पाकिस्तान की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है बल्कि उसकी सैन्य और राजनीतिक क्षमताओं पर भी आश्रित है.सुरक्षित अफगानिस्तान के लिए पाकिस्तान में एक उदार शासन की जरूरत है. पाकिस्तान में आज प्रमाणित सरकार और सिस्टम से ज्यादा प्रामाणिक सरकार की दरकार है. एक ऐसी सरकार जिस पर विश्वास किया जा सके. अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर दोनों ओर विश्वसनीयता का संकट समान रूप से मौजूद है.

दूसरे,पाकिस्तान के कुछ सीमान्त इलाके तरह-तरह के चरमपंथी और आतकवादी संगठनों के लिए स्वर्ग बने हुए हैं. इन संगठनों का प्रभाव क्षेत्र केवल पाकिस्तान नहीं, बल्कि लगभग सम्पूर्ण दक्षिण एशिया है. सबसे साफ मामला लश्कर-ए-तोइबा का है, जिसका अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव और अल-कायदा से उसका सम्बन्ध २००८ में मुंबई हमले और संभवत: २०१० में न्यूयॉर्क के तिमेस स्क्वायर पर हमले के प्रयास की ओर ले गया. असफल पाकिस्तान केवल इस तरह की शक्तियों को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर और अधिक सक्रिय होने की क्षमता प्रदान करेगा.

तीसरे, पाकिस्तान के पास जो परमाणु क्षमता है, वह उसे असफल नहीं होने देगी. इसके परमाणु हथियार अभीतक असंवैधानिक शक्तियों की पहुंच से बाहर हैं, जबकि इन हथियारों के आतंकवादियों केहाथों लग जाने के खतरों को प्राय: काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है. परमाणुहथियारों के विकास में ईरान, उत्तर कोरिया और लीबिया जैसे गैरजिम्मेदार राज्यों कीतरह पाकिस्तान का भी अतीत भयावह है. इसी तरह भारत के साथ उसका लगातार द्वंद्व भीमाना जा सकता है. दक्षिण एशिया में परमाणु नरसंहार नामुमकिन है. दोनों देश चारयुद्ध लड़ चुके हैं. नाकाम पाकिस्तान उपमहाद्वीप में अत्यधिक राजनीतिक अव्यवस्थाउत्पन्न करेगा.

आखिरकार,पाकिस्तान सोमालिया तो है नहीं:

यह पर्याप्त बड़ा और संगठित है कि आसानी से असफलताऔर अराजकता में नहीं डूबेगा. संयुक्त राष्ट्र संघ, पाकिस्तान को दुनिया कि दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी और महत्वपूर्ण भौगोलिकस्थिति के कारण अनदेखा नही कर सकता.

चार बड़ी चुनौतियां:

अगर पाकिस्तान को असफल होने के लिए छोड़ देना कोई उपाय नहीं है, तो आखिर क्या करना चाहिए ? मैंने हाल ही में ब्रूकिंग्स संस्थान में एकप्रोजेक्ट को संचालित किया था, चौदह अमेरिकी, यूरोपियन, पाकिस्तानी और भारतीयविशेषज्ञों के एक समूह के साथ, जिसमें कि यह सवाल उठाया गया था। समूह ने चार भागोंमें उन्नीस गंभीर तथ्यों कि पहचान की थी

पाकिस्तान की अस्थिरता के कारण:

पहले भाग में पाकिस्तान की जनसांख्यिकी, शिक्षा, औरअर्थव्यवस्था से जुड़ी चिंताएं हैं. इस देश में अमेरिकी विरोधी बढ़ रहे हैं और वे शिक्षित शहरी जनता और सेना में अलोकतांत्रिक भावनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं. इसके साथ ही पाकिस्तान कमज़ोर शिक्षा व्यवस्था और तीव्र शहरीकरण के साथ भयंकर रूप से बढतीजनसँख्या के दुखद प्रभावों को भी झेल रहा है. पाकिस्तान की पूरी 180 मिलियन की आधी आबादी 20 वर्ष से कम उम्र की है. ऐसी संभावना है कि पाकिस्तान पर आबादी का यह बोझ लगातार बढ़ता जाएगा. 1960 से अब तक पाकिस्तान की आबादी तीन गुना बढ़ चुकी है. ऐसी संभावना है कि आनेवाले 20 सालों में इस आबादी में 85 मिलियन लोगों का इजाफा हो जाएगा.

बढ़ती आबादी और ढहती अर्थव्यवस्था पाकिस्तान के पूरे परिदृश्य को और अधिक जटिल बनाता जा रहा है. 2008 के आर्थिक मंदी के दौर में पाकिस्तान में जीडीपी विकास दर 1.6% के दुखद स्तर पर था. इस साल उसके बढ़कर 2.6 प्रतिशत सालाना हो जाने की उम्मीद है. पाकिस्तान में मंहगाई आसमान छू रही है. 2008 में पाकिस्तान में मुद्रास्फीति की दर 20 प्रतिशत पार गयी थी जो अभी भी 10 प्रतिशत के दर पर बनी हुई है. पाकिस्तान में बेरोजगारी बीस साल के चरम पर है. पाकिस्तान में बेरोजगारी की दर 14 प्रतिशत है. आनेवाले दो तीन सालों में इसमें कमी आने के कोई संकते नहीं हैं और इसमें इजाफा ही होगा. देश का प्रशासन भी अब विदेशी सहायता पाकिस्तान के बाहर रह रहे अनिवासी पाकिस्तानियों के दम पर चल रहा है. साल 2010 में 13 अरब डॉलर की विदेशी मदद ने पाकिस्तान में प्रशासन को टिकाये रखने में मदद किया है.

मुद्दे का दूसरा भाग जो की पाकिस्तान के भविष्य को आकार देता है वह इस देश के नागरिकों के आत्म पहचान के इर्द-गिर्द घूमता है, जो की खुद को उनके धर्म, नस्ल और क्षेत्र के आधार पर पहचानते हैं. मुहम्मद अली जिन्नाह ने पाकिस्तान की स्थापना करते समय जिस सेकुलर, उदार, और लोकतान्त्रिक पाकिस्तान का स्वप्न देखा था वह स्वप्न और उनके विचार दोनों खतरे में हैं. पाकिस्तान कई तरह के अतिवादियों के बीच फंस गया है. ये अतिवादी न केवल धर्म के नाम पर सक्रिय हैं बल्कि भाषा और प्रांतवाद के अतिवादी भी पाकिस्तान को अपने अनुसार बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं. अगर पाकिस्तानी प्रशासन खुद इस बात को आगे नहीं बढ़ाता है कि वह जिन्ना के आदर्शों का ही पाकिस्तान बने रहना चाहता है तो निश्चित रूप से जिन्ना के पाकिस्तान के टूटने बिखरने की चर्चाओं का जोर बढ़ता चला जाएगा. बहस के केन्द्र में यह बात तो अब आ ही गयी है कि पाकिस्तान के बने रहने का आखिर औचित्य क्या है?

हालाँकि पाकिस्तान राज्य की स्थिरता को कोई खतरा नहीं है लेकिन फिर भी नस्ली-भाषाई आन्दोलन और अन्य विखंडनवादी ताकतें–खासतौर पर बालोचिस्तान, सिंध, खैबर पख्तून्ख्वा- उभार पर हैं और सरकार और सेना की वैधता को सीमित कर सकते हैं. पाकिस्तानी तालबान के संगठन और अंदाज का उपयोग करते हुए पख्तूनीराष्ट्रवाद के पुनरुत्थान की काफी मजबूत संभावना है. नस्ली और सांप्रदायिक राजनीतिका जिन्न बोतल से निकल गया है, पाकिस्तान का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस हद तक इन विघटनकारी शक्तियों के सांगठनिक और जनाधार को कमजोर कर सकता है.

पाकिस्तान में एक बड़ा संकट वहां खुद सेना है. पिछले चालीस पचास सालों में पाकिस्तान के सामान्य प्रशासन और सेवाओं पर पाकिस्तानी सेना का जिस प्रकार प्रभुत्व कायम हुआ है वह पाकिस्तान में नागरिक प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है. हालांकि 2007 में जरदारी के राष्ट्रपति बनने के बाद से सेना के व्यवहार में थोड़ा बदलाव जरूर आया है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि पाकिस्तानी सेना बैरकों में वापस लौट गयी है. पाकिस्तान में सेना का हस्तक्षेप बदस्तूर जारी है. इसलिए पाकिस्तान में यह बहुत जरूरी है कि पाकिस्तान सेना की भूमिका को सीमित करे और सरकार पर सेना के प्रभुत्व की बजाय सेना पर सरकार का प्रभुत्व कायम करे. पाकिस्तान में सरकार, मीडिया, न्यायपालिका सबको मिलकर मेहनत करनी होगी ताकि पाकिस्तान फेल्ड स्टेट की बार्डर लाइन से वापस लौट सके. अगर ऐसा नहीं होता है और सेना का प्रभुत्व लगातार बढ़ता चला जाएगा और अगले पांच साल में पाकिस्तान की स्थिति और भयावह हो जाएगी.

पाकिस्तान को अपनी सीमाओं के भीतर तो ये सुधार करने ही होंगे लेकिन उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खत्म हो चुकी छवि को ठीक करने की कोशिश करनी होगी. अगर पाकिस्तान ऐसा करने में अक्षम साबित होता है तो उसे आखिरी सलाम करने के अलावा दुनिया के देशों के सामने और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचेगा. पड़ोसी भारत और चीन की पाकिस्तान में अपनी भूमिकाएं हैं और अमेरिका यह जानते हुए कि पाकिस्तान में वह अलकायदा से बड़ा दुश्मन समझा जाता है, हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता.

Posted by राजबीर सिंह at 11:49 pm.

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