भारत को कब तक इंडिया कहेंगे

हमारे देश का नाम क्या है? मेरे जैसा हिंदी भाषी कहेगा- भारत. देश के और भी लोग कहेंगे- भारत. भारतीय भाषाओं की सभी किताबों तथा पत्र-पत्रिकाओं में भारत ही लिखा जाता है लेकिन किसी अंग्रेजीवाले से पूछ कर देखिए.

वह कहेगा-इंडिया. लेकिन क्या किसी देश के दो-दो नाम होते हैं? पाकिस्तान के कितने नाम हैं? और, बांग्लादेश के? क्या श्रीलंका का कोई अंग्रेजी नाम भी है? श्रीलंका पहले सीलोन कहलाता था. लेकिन जब उसमें राष्ट्रीयता का बोध जगा, तो उसने अपना नाम बदल लिया और अब सारी दुनिया उसे श्रीलंका के नाम से ही जानती है. यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हम अभी भी दो-दो नाम ढो रहे हैं. हम अपने को भारत मानते हैं, लेकिन दुनिया हमें इंडिया कहती है.

स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में भी दोनों नाम चलते थे. राष्ट्रीयता का प्रबल ज्वार आया हुआ था, फिर भी किसी को यह दावा करने की नहीं सूझी कि हमारे देश का मूल नाम भारत ही है, कोई इसे इंडिया न कहे. भारत का एक और नाम प्रचलित रहा है- हिंदुस्तान. यह बहुत ही प्यारा नाम है. आज भी इसका इस्तेमाल होता है. कहते हैं, यह हिंद का ही विस्तार है. हिंदी को एक जमाने में हिंदवी भी कहते थे. हम चाहें तो हिंद को अपना सकते हैं.

इस नाम का एक ऐतिहासिक महत्व भी है. लेकिन अब यह सब बिसरी हुई बातें लगती हैं. भारत नाम इतना स्थापित हो चुका है कि उसे बदलने के किसी भी फैसले को संदिग्ध नजर से देखा जाएगा और इसके तरह-तरह के अर्थ निकाले जाएंगे. लेकिन यह तो पूछा ही जा सकता है कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने यह जिद क्यों नहीं की कि हमारे लिए इंडिया शब्द का इस्तेमाल न किया जाए? आश्चर्य यह है कि इस चूक पर कोई आश्चर्य भी नहीं करता.

यह आश्चर्य की बात इसलिए नहीं है कि भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में अंग्रेजी की केंद्रीय भूमिका थी. देश के संपन्न परिवारों के लड़के-लड़कियां पढ़ने के लिए इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा गए और अपने विषय के साथ-साथ अंग्रेजी में भी निष्णात हो कर लौटे. महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस, बाबासाहब अंबेडकर- सबकी कहानी एक ही है. इनमें राममनोहर लोहिया सबसे अलग थे.

उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने भारत के औपनिवेशिक शासकों के देश में जाने से इनकार कर दिया. डॉक्टरेट की पढ़ाई के लिए वे जर्मनी गए. लॉर्ड क्लाइव ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचलन यह सोच कर किया था कि भारत की नई पीढ़ी सिर्फ चमड़ी से भारतीय रह जाएगी- उसकी आत्मा पर अंग्रेजी का कब्जा होगा. यह कु छ हद तक हुआ भी, लेकिन अंतत: इसका खमियाजा अंग्रेजी शासन को ही भरना पड़ा. जिन्होंने अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाई की और जो उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजों के देश में गए, उनमें स्वतंत्रता और समानता का दशर्न अंखुआने लगा. अंग्रेजी के माध्यम से उन्होंने ढेर सारा ऐसा साहित्य पढ़ा जो मानव मुक्ति और राष्ट्रीय स्वाधीनता को प्रेरित करने वाला था. भारत लौट कर वे गुलामी की जंजीरों को घृणा से देखने लगे.
मुश्किल यह हुई कि स्वतंत्रता की बात करनेवाले ये महानुभाव अंग्रेजी शासन का उग्र विरोध तो करते थे, पर उनके दिलो-दिमाग पर अंग्रेजी राज करने लगी थी. इनमें से ज्यादातर अंग्रेजी में ही अपने को अच्छी तरह व्यक्त कर पाते थे. अंग्रेजी, ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के संघर्ष की भाषा तो बन गई, पर वह भारत के लिए एक समस्या भी हो गई. अधिकांश अंग्रेजीदां नेता यूरोपीय सभ्यता को भारत की सभ्यता से बहुत ऊं चा मानते थे और भारत को भी

उसी रंग में ढालना चाहते थे. इसके दो प्रमुख अपवाद थे- महात्मा गांधी और राममनोहर लोहिया. गांधी ने अपने विचारों की बीज पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’ में पश्चिमी सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा और भारत को उससे बचने की सलाह दी. यह गांधी ही थे जिन्होंने सबसे पहले भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को प्रतिष्ठित करने का आंदोलन चलाया. वे खुद धीरे-धीरे अंग्रेजी का प्रयोग कम करने लगे. इसका एक मजेदार किस्सा यह है कि जब आजादी का दिन नजदीक आ गया, तब गांधी ने इस विषय पर भावी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से पत्र व्यवहार शुरू कर दिया कि स्वतंत्र भारत का स्वरूप क्या होगा. वे अपनी चिट्ठियां हिंदी में भेजते थे और साथ में लिख देते थे कि हिंदी समझने में तुम्हें दिक्कत हो सकती है, इसलिए अंग्रेजी अनुवाद भी नत्थी कर रहा हूं.

राममनोहर लोहिया ने स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग के विरु द्ध अभियान छेड़ा. संसद में वे हमेशा हिंदी में ही बोलते थे. लोहिया भी पश्चिमी सभ्यता को शक की निगाह से देखते थे. उनका मानना था कि यह सभ्यता वि सभ्यता नहीं बन सकती.
बहरहाल, अंग्रेजी का दबदबा बना रहा. इस दबदबे के कारण ही जब स्वतंत्र भारत का संविधान बनने लगा, तो देश का नाम ‘इंडिया, दैट इज भारत’ लिखने में दिक्कत नहीं हुई.

यह इसीलिए भी हो सका क्योंकि संविधान सभा में अंग्रेजीवालों का बहुमत था और हमारा संविधान भी अंग्रेजी में ही लिखा जा रहा था. फिर भी संविधान सभा ने भारत का पहला नाम इंडिया नहीं रखा. यह जरूर लिख दिया गया कि ‘भारत यानी इंडिया’. नतीजा यह हुआ कि दुनिया हमें इंडिया ही कहती रही और भारत की सरकार आज भी अपने को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया लिखती है. देश के दो नाम हो गए. जिसको जो ठीक लगे, वह उसका प्रयोग करे. लेकिन इस स्थिति में क्या भारतीय चित्त की द्विखंडितता दिखाई नहीं पड़ती?

इस महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर ध्यान आकर्षित करता है वह घोषणापत्र जिसे भोपाल में 24-25 सितम्बर 2011 को संपन्न हुए ‘भूमंडलीकरण और भाषा की अस्मिता’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद के सहभागियों ने एक मत से अंगीकार किया. इसकी शुरुआत में कहा गया है, ‘हम सभी सहभागी महसूस करते हैं कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की अस्मिता ही नहीं, अस्तित्व तक खतरे में है.’ घोषणापत्र में आठ मोटी-मोटी बातें कही गई हैं. आठवीं बात यह है, ‘हमारे देश का नाम भारत है. अपने ही देशवासियों के मुंह से ‘इंडिया’ सुन कर हमें अच्छा नहीं लगता. इसलिए ‘इंडिया दैट इज भारत’ को हटा कर सिर्फ भारत किया जाए.

मेरे खयाल से, हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अस्तित्व के संघर्ष का आरंभ करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण तथा आकषर्क मुद्दा बन सकता

Posted by राजबीर सिंह at 10:45 pm.

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